श्रीमद्भगवत गीता » क्या दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है
क्या दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है
प्रश्न - गीता अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 में कहा है कि अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है, दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। इससे सिद्ध होता है कि जो भी जैसी पूजा करता है उसे त्यागना नहीं चाहिए। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है।
उत्तर - यदि गीता अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 का अर्थ यही है कि जो जैसी पूजा करता है करता रहे, उसे मत त्यागो तो पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान की क्या आवश्यकता थी ? एक श्लोक बहुत था। श्री गीता जी के इन श्लोकों का भावार्थ सही है, परन्तु अनुवाद कर्ताओं ने विपरीतार्थ किया है। कृपया निम्न पढ़ें उपरोक्त दोनों श्लोकों का वास्तविक अर्थ-
अध्याय 3 का श्लोक 35
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वधर्मे, निधनम्, श्रेयः, परधर्मः, भयावहः।।
स्वधर्मे, निधनम्, श्रेयः, परधर्मः, भयावहः।।
अनुवाद: (विगुणः) गुणरहित अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए (परधर्मात्) दूसरोंकी धार्मिक पूजासे (स्वधर्मः) अपनी शास्त्र विधि अनुसार पूजा (श्रेयान्) अति उत्तम है। शास्त्रानुकूल (स्वधर्मे) अपनी पूजा में तो (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है और (परधर्मः) दूसरेकी पूजा (भयावहः) भयको देनेवाली है।
अध्याय 18 का श्लोक 47
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।
अनुवाद: (विगुणः) गुण रहित (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्र विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए (परधर्मात्) दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से (स्वधर्मः) अपना धर्म अर्थात् शास्त्रा विधि अनुसार धार्मिक पूजा (श्रेयान्) श्रेष्ठ है (स्वभावनियतम्) स्वयं ही अपने स्वभाव अनुसार बनाए मनमाने आचरण से (कर्म) भक्ति कर्म (न) मत (कुर्वन्) करो (किल्बिषम्) जिससे पापको (आप्नोति) प्राप्त होता है। विशेष: इसी का प्रमाण गीता अ. 17 के श्लोक 1 से 6 में स्पष्ट है।
उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट है कि अपनी शास्त्र विधि अनुसार साधना श्रेष्ठ है चाहे दूसरों की चमक-धमक वाली साधना कितनी ही सुनियोजित लगे, वह हानिकारक होती है।
जैसे माता का जागरण करने वाले बहुत सुरीली आवाज में गाना गाकर माता की स्तुति मन घडंत कविताओं द्वारा पूरे साज-बाज के साथ करते हैं। उस (स्वनुष्ठितात्) स्वयं निर्मित शास्त्र विधि रहित साधना पर आकर्षित होकर अपनी शास्त्रा अनुकूल साधना नहीं त्यागनी चाहिए। जैसे कोई साधक सत साधना पर लगता है तो वह पूर्व की शास्त्र विरुद्ध पुजाओं को त्याग देता है, जैसे पितर पूजा, मन्दिर आदि में जाना आदि। तब अन्य शास्त्र विधि विरुद्ध साधना करने वाले कहते हैं कि आपने सर्व पूर्व पूजाऐं त्याग दी हैं। आप से सर्व देव रुष्ट हो जायेंगे। एक व्यक्ति ने ऐसा ही किया था, उसका इकलौता पुत्र मर गया। इस तरह यह दूसरों की शास्त्र विरूद्ध साधना भय पैदा करती हैं, परन्तु अपनी शास्त्र अनुकूल साधना को अन्तिम स्वांस तक करते रहना ही कल्याणकारक है।
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